Monday 28 November 2016

प्रेम-सत्य-धर्म-न्याय


प्रेम-सत्य-धर्म-न्याय 
प्रेम, सत्य, धर्म और न्याय यह चारों शब्द ढ़ाई अक्षर के हैं। यह ढ़ाई अक्षर वाले चार शब्द केवल शब्द नहीं हैं। यह जीवन व्रत हैं।  यह चार शब्द मानव के जीवन को पूर्ण करते हैं। यह चार शब्द मानव को शक्ति प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन में इन चारों शब्दों को पूर्णयता स्वीकार करता है। वही वास्तव  में इस पृथ्वी पर अपने जीवन का उद्देश्य प्राप्त करता है। 

प्रेम, सत्य, धर्म और न्याय इन चारों शब्दों पर चर्चा करना या बहस करना बहुत आसान है। किन्तु इन चारों शब्दों को जीना बहुत ही कठिन हैं। यदि मैं यह कहूँ कि इन चार शब्दों को जीना जप, तप, योग आदि क्रियाओं से भी कठिन है।  तो कोई अतिशोयक्ति नहीं होगी। 

यदि प्रेम, सत्य, धर्म और न्याय इन शब्दों की सार्थकता, कठिनता और पूर्णयता का उदाहरण देखना चाहते हैं। तो रघुकुल नायक, दशरथ नंदन श्री रामचंद्र जी की जीवन गाथा और देवकी नंदन, यशोमति मैया के दुलारे, यादव वंश के सरताज, ब्रजनायक श्री कृष्णचंद्र जी की जीवन गाथा पढ़ें और सुनें। 

जो व्यक्ति प्रेम, सत्य, धर्म और न्याय को अपने जीवन में धारण करता है। त्याग उसके जीवन का अभिन्न अंग बन जाता है। 

गीता राधे मोहन 
प्रेमाभक्ति योग दिल्ली 

मन अपना कार्य पूरी निपुणता से कर रहा है !

ॐ नमो श्री हरि 

ॐ नमो श्री राधे श्याम


राधे राधे जी ! श्री हरि प्रेमियों ,


आप को अपनी सभी समस्याएं भली-भाँति ज्ञात है। किन्तु उपाय आप दूसरों से प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। आपने लिखा मन विचलित रहता है। मन अपना कार्य पूरी निपुणता से कर रहा है। आप अपना कार्य अपने मन से ज्यादा निपुणता से करो। मन को श्री हरि के चरणों में लगाओ। अपने मन और जिव्हा को श्री हरि का नाम जपने के कार्य में लगा दें। बाकि कार्य श्री हरि स्वयं साध देवेंगे। 

गीता राधेमोहन 
प्रेमाभक्ति योग दिल्ली 

Tuesday 15 November 2016

ऐतिहासिक फैसले पर चन्द पंक्तियाँ

भारतवर्ष में बहुत बरसों बाद लिए गए ऐतिहासिक फैसले पर चन्द पंक्तियाँ 


हर दिन सोचते थे कि 
देश के लिए कुछ करें 
आज वक़्त ने मौका दिया 
चलो ! अपना फ़र्ज़ भी चुकता करें

हक़ ! प्रजा होने का निभा दें 
लिया जो फैसला है, उसने देश के हित में 
वो अकेला नहीं,  हम साथ हैं उसके
बोल ! वन्देमातरम उसको बता दें 

कुछ दिन मेहमान है, यह तकलीफ 
मिटा कर बरसों के रास्ते 
उसने नयी बनाई लीक 
जीवन प्रति क्षण बदलने का नाम है 
श्री कृष्ण ने गीता में भी 
यही सिखाई सीख 

नीम और नमक कड़वे सही 
सेहत और स्वाद की खान है
वक़्त फिर आने वाला है वो
जब पूरा विश्व कहेगा कि 
मेरा भारत महान है मेरा भारत महान है 



Monday 14 November 2016

प्रेमाभक्ति योग क्या है ?

श्री हरि  के प्यारों,
                          -: जय श्री राधे-श्याम  जय श्री सीता-राम :- 


श्री हरि की कृपा से और अपने बुद्धि विवेक से मैं आप को प्रेमाभक्ति योग के बारे में बताने की चेष्टा कर रही हूँ। यह शब्द प्रेमाभक्ति बहुत छोटा सा है, परन्तु इस शब्द में सम्पूर्ण विश्व समाया हुआ है। इस शब्द की व्याख्या करना गागर में सागर भरने के विचित्र प्रयास के जैसा है। प्रेमाभक्ति योग को समझने के लिए इसको ऐसे लिखते हैं - प्रेम-भक्ति-योग !


आइये पहले योग को समझते हैं। योग का अर्थ जोड़ना / मिलाना होता है। हमारे द्वारा लिखे हुए योग का अर्थ है आत्मा का परमात्मा से जोड़ना / मिलाना आदि। आज जिस योग ( योगा ) की चर्चा चारों ओर हैं। उसको शारीरिक व्यायाम कहते हैं। या हठयोग कहते हैं। 


अब थोड़ा सा भक्ति के बारे में जानने का प्रयास करते हैं। श्री हरि को पाने के कई तरीक़े हैं। कोई तप- भक्ति से पाने की कोशिश करता है तो कोई जप-भक्ति से, कोई हठ-भक्ति से हरि को पाने का प्रयास करते हैं। भक्ति के भिन्न-भिन्न अनेक रूप हैं। लेकिन श्री हरि ने प्रेम को भक्ति का सबसे श्रेष्ठ रूप बताया है। जब प्रेम और भक्ति मिल जाते हैं तब वह प्रेमाभक्ति योग कहलाता है। इस योग से आत्मा का परमात्मा से मिलन बहुत ही सरलता से हो जाता है। प्रेमाभक्ति का प्रसाद सर्वप्रथम श्री कृष्णचंद्र ने गोकुल की गोपियों द्वारा अपने बड़े भाई श्री उद्धव जी को दिलाया था।  यह प्रसंग ऐसे है कि --




जब कंस ने बाबा नन्द को श्री बलराम और श्री कृष्ण के साथ धनुष यज्ञ देखने के लिए मथुरा बुलाया। तब श्री कृष्ण ने नन्द बाबा और भाई बलराम के साथ मथुरा में आकर कई लीलाएँ की जैसे कुब्जा को सुंदरता प्रदान की, धोबी को मुक्ति दी, दर्जी से वस्त्र सिलवाकर उसकी इच्छा पूरी की, शिव धनुष को तोड़ा, कंस ने द्वार पर एक पागल हाथी बँधवाया था, यह सोचकर कि यह हाथी बलराम और कृष्ण को सभा स्थल पहुँचने से पहले यहीं द्वार पर मार देगा परन्तु बलराम और कृष्ण ने उस हाथी को मुक्ति देकर स्वर्ग भेज दिया। उसके बाद मल्लयुद्ध लीला और फिर कंस वध किया। कंस वध के बाद बाबा नन्द और सभी गोकुलवासी जो उनके साथ मथुरा आये हुए थे वापिस गोकुल लौट गए। श्री कृष्ण और श्री बलराम मथुरा में ही रुक गए। 




यहाँ मथुरा में श्री कृष्ण के रिश्ते के एक बड़े भाई थे, जिनका नाम उद्धव था।  उद्धव जी ब्रह्म ज्ञानी थे। उद्धव जी को अपने ब्रह्म ज्ञानी होने का अहंकार भी था। श्री कृष्ण ने उनके अहंकार को ख़त्म करने और उनको ब्रह्म ज्ञान का मूल समझाने के लिए एक लीला रची । कि एक दिन श्री कृष्ण अपने महल में बैठे रो रहे हैं तभी वहाँ पर उद्धव जी आते हैं और उनसे रोने का कारण पूछते हैं।  श्री कृष्ण कहते हैं कि मुझे ब्रज की याद आ रही है। मुझे अपने सखा और गोपियाँ याद आ रहीं हैं। मुझे राधा जी, मैया यशोदा, बाबा नन्द सभी की याद सता रही है।  मुझ से ब्रज बिसारा नहीं जाता है। इस कारण मेरी आँखें भर आती हैं। यह सुनकर उद्धव जी बोले कि आप साक्षात् ईश्वर हो, ब्रह्म हो यदि आप ही इस प्रकार मोह-माया में उलझोगे तो प्राणी मात्र का क्या होगा। जिसको आप की माया प्रति क्षण ही भ्रमित करती है। श्री कृष्ण कहते हैं कि भैया मैं तो मान जाऊँ परन्तु ब्रज की गोपियाँ मुझे इस प्रकार प्रेम करती हैं कि उनके प्रेम की पुकार मुझे प्रति क्षण बैचेन करती है। मैंने उन्हें कई बार समझाया परन्तु वह मानतीं ही नहीं हैं। श्री कृष्ण ने उद्धव जी से कहा कि आप तो ब्रह्म ज्ञानी हैं। आप गोकुल जा कर गोपियों को ब्रह्म ज्ञान दें जिससे कि वह सब ब्रह्म की आराधना से इस मोह-माया से मुक्त हो जाएँ। श्री कृष्ण ने एक पत्र गोपियों के नाम लिखा। जिसे लेकर उद्धव जी गोकुल पहुँचे। जब गोपियों से उनका वार्तालाप हुआ। तब उनका सारा ब्रह्म ज्ञान धरा का धरा रह गया और गोपियों से प्रेमाभक्ति का प्रसाद पाकर उनका सारा अहंकार भी ख़त्म हो गया। उद्धव जी जब गोकुल आए थे तब वह एक ब्रह्म ज्ञानी थे। परन्तु जब वह वापिस मथुरा लौटे तब वह हरि प्रेमी थे। पहले उद्धव जी ध्यान लगा कर हरि के दर्शन करते थे। प्रेमाभक्ति के बाद हर क्षण हरि से मिलते थे। ध्यान लगाने की आवश्यकता ही नहीं थी। 


प्रेमाभक्ति का एक बहुत ही अनुपम गीत है अवश्य देखें। 



विषय बहुत विस्तृत है। संक्षेप में लिखने से जो बात आप तक पहुँचाना चाहती हूँ, वह असम्भव है। इसलिए कुछ विचार अगले लेख में साझा करुँगी। धन्यवाद !

आप को यह लेख कैसा लगा। कृपा ज़रूर बताएं। संपर्क सूत्र निम्न हैं। 

whatsApp - 9643581002 

Email- premabhaktiyog@gmail.com 



Saturday 5 November 2016

हम इस संसार में किस लिए आये हैं ?

श्री हरि  के प्यारों,
                          -: जय श्री राधे-श्याम  जय श्री सीता-राम :- 


9 अक्टूबर 2016 के लेख का तीसरा सवाल है कि हम इस संसार में किस लिए आये हैं ?


दोस्तों, क्या आप ने कभी सोचा है कि हम इस संसार में किस लिए आये हैं ? जो हम करते हैं। क्या वाक़ई हम वही करने के लिए आये हैं। क्या उस ईश्वर ने हम को अन्य जीव-जंतुओं जैसा ही बनाया है या उन सबसे भिन्न बनाया है। 

यदि आप यह मानते हैं कि ईश्वर ने आपको अन्य जीव-जंतुओं जैसा ही बनाया है तो आप जो कर रहे हैं। वही आप के लिए उचित है। लेकिन, यदि आप यह मानते हैं कि ईश्वर ने आप को अन्य जीव-जंतुओं से भिन्न बनाया है तो आप का कर्म भी अन्य जीव-जंतुओं से भिन्न होगा। आज लगभग सभी व्यक्ति अपने बारे में ही सोचते समझते हैं। जिसका समाज पर बहुत बुरा प्रभाव देखने को मिल रहा है। 

ईश्वर ने इस पूरी दुनिया को बनाया और हमारे सुपुर्द  कर दिया। उसने हमारे हृदय में प्रेम, दया, करुणा का रस भरा। उसने हमारे लिए नेकी और भलाई की राह बनाई। उसने हम को एक दूसरे का भला करने का कार्य दिया। उसने हमको बल-बुद्धि-विवेक दिया। उसने अपनी ख़ूबसूरत दुनिया हमारे हवाले कर दी। 

लेकिन हम ने क्या किया ? क्या है, हमारा व्यवहार एक-दूजे के प्रति ? हम ने अपने हृदय से प्रेम, दया, करुणा निकाल  कर  ईर्ष्या,घृणा, नफ़रत का ज़हर भर लिया। हम ने भलाई और नेकी की राह  को छोड़ कर नफ़रत और बुराई के रास्ते पकड़ लिए। एक-दूजे का भला भूल गए बस याद रहा तो अपना लाभ। ईश्वर की दी हुईं तीन अनुपम शक्तियाँ  बल-बुद्धि-विवेक का उपयोग तो हमने बहुत ही अजीब तरीक़े से किया है। 

-: बल-बुद्धि-विवेक :-


बल- ईश्वर ने बल दिया कमज़ोरों की मदद के लिए, अन्याय को रोकने के लिए , समाज भलाई के लिए।  


बुद्धि- ईश्वर ने बुद्धि नीतिवान, ज्ञानवान, दयावान, विद्वान बनने के     लिए दी। 


विवेक- ईश्वर ने विवेक हमको धर्म और नीति की राह पर चलने के     लिए दिया 


हम ने जिस प्रकार इन तीनों शक्तियों का दुरुपयोग किया है। उसको बताने के लिए मुझे शब्दों की ज़रूरत नहीं है। वह आप सब प्रत्यक्ष ही देख सकते हैं। 


विषय बहुत विस्तृत है। संक्षेप में लिखने से जो बात आप तक पहुँचाना चाहती हूँ, वह असम्भव है। इसलिए कुछ विचार अगले लेख में साझा करुँगी। धन्यवाद !

आप को यह लेख कैसा लगा। कृपा ज़रूर बताएं। संपर्क सूत्र निम्न हैं। 

whatsApp - 9643581002 
Email- premabhaktiyog@gmail.com 

Friday 4 November 2016

शब्द क्या है ?

श्री हरि  के प्यारों,
                          -: जय श्री राधे-श्याम  जय श्री सीता-राम :-

28 अक्टूबर 2016 के लेख का अंश 

सवाल :- शब्द क्या है ?
जवाब :- शब्द माता-पिता है। शब्द प्रेम है। शब्द ईश्वर है। शब्द जीवन है। शब्द ज्ञान है। शब्द वैराग्य है। शब्द संसार है। शब्द मेल है। हम सब से पहले शब्द से मिलते हैं। शब्द ही हमको सब कुछ सीखता है। शब्द ही हमारा मार्ग दर्शन करता है। शब्द ही हमको सच्ची पहचान दिलाता है। शब्द से ही यह संसार है। अब आगे 

मानव जब शिशु रूप इस पृथ्वी पर आता है। तब वह कुछ क्रियाएं जानता है या प्रभु उससे कराते  हैं। रुदन करना, शयन करना,भूख का अहसास करना,मल-मूत्र की क्रिया करना। किन्तु एक क्रिया परिवार वाले करते हैं जो नामकरण संस्कार क्रिया कहलाती है। इस क्रिया में शिशु को एक नाम दिया जाता है। जो उसके जीवन का पहला शब्द होता है। जो उसकी प्रथम पहचान बनता है। धीरे-धीरे जब वह बड़ा होता है तब उसकी क्रियाएं भी बढ़ने लगती हैं। हँसना सीखता है। चलना सीखता है। और इन क्रियाओं में एक क्रिया होती है बोलना। 


जब शिशु बोलना सीखता है तब उसका परिचय शब्द से या शब्दों से होता है। शब्द ही उसको ज्ञान देते हैं। जैसे माँ कौन है ? घर में दो-चार स्त्री, पुरुष होते ही हैं किन्तु सभी की पहचान अलग होती है। वो पहचान शब्द कराते हैं। इस प्रकार शिशु अक्षर ज्ञान से पहले शब्द ज्ञान प्राप्त करता है। 


अक्षर ज्ञान से शब्दों की पहचान होती है। किन्तु अक्षर हमको पूर्ण ज्ञान देने में सक्षम नहीं होते हैं। अक्षर-अक्षर के योग से शब्द, शब्द-शब्द के योग से वाक्य, वाक्य-वाक्य के योग से पुस्तक, ग्रन्थ आदि जन्म होता है। किन्तु शब्द ज्ञान के लिए अक्षर ज्ञान होना आवश्यक नहीं है। शब्द ज्ञान हम स्वतः ही सीखते हैं क्योंकि यह ज्ञान हमको हमारे परिवेश से मिलता है। परंतु लेखन के लिए अक्षर ज्ञान होना अति आवश्यक है। 

यदि हम चाहते कि हमारी पीढ़ी को एक अच्छा परिवेश मिले तो हमको अपने शब्दों को सही और संतुलित करना होगा। आज हमारे शब्द बहुत ही असंतुलित हो चुके हैं। असंतुलित शब्द ही आज के बढ़ते हुए लड़ाई-झगड़े का कारण बनते हैं। शब्दों का खेल बहुत ही अनोखा होता है। मुख से निकले मीठे शब्द आपको सबका प्यारा बनाते हैं।  और कड़वे शब्द लड़ाई-झगड़े व दुश्मनी का कारण बनते हैं। अतः इसलिए महाकवि कबीर दास जी ने भी कहा है। 

ऐसी बानी बोलिए मनका आपा खोय। 
औरन को सीतल करे आपहु सीतल होय।।




शब्द के बारे में और चर्चा अगले लेख में करेंगे धन्यवाद 




यदि कोई सवाल आप को परेशान करता है। तो जरूर लिखें ईश्वर की कृपा से आपको उसका जवाब अवश्य मिलेगा। अपना सवाल हमें इस Mail id पर भेजें या whats app करें। 
premabhaktiyog@gmail.com 

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