Monday 10 April 2017

शरीर के सात चक्र

!! ॐ नमो श्री हरि !!

!! शरीर के सात चक्र - जीवन के प्रमुख  ऊर्जा केंद्र !!

चक्र एक संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ है पहिया।  चक्र ऊर्जा केंद्र है जो सूक्ष्म शरीर में होते हैं।  सूक्ष्म शरीर के 7 प्रमुख चक्र होते हैं। सूक्ष्म शरीर व्यक्ति के भौतिक शरीर को पूरी तरह ढके हुए चमकदार ऊर्जा केंद्र होते हैं ।  यह विभिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न आकार के छोटे या बड़े हो सकते हैं। ये चक्र सुषुम्ना नाड़ी  से जुड़े रहते हैं जो रीढ़ के साथ-साथ रहती है। भौतिक शरीर बिना चक्रों के जीवित नहीं रह सकता है। ये चक्र वायु मण्डल  से प्राण शक्ति प्राप्त करते हैं जिन्हें वे शरीर के ऊर्जा केंद्रों में अन्तः स्थापित ग्रंथियों (एंडोक्राइन) के माध्यम से पहुँचाते हैं। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग विभिन्न कार्यों से जुड़े रहते हैं। उसी प्रकार ये चक्र भी विभिन्न कार्यों के प्रति उत्तरदायी होते हैं। शरीर के निचले चक्र भावनाओं एवं आवश्यकताओं से जुड़े रहते हैं। उनमें ऊर्जा स्पन्दन की गति धीमी रहती है। जबकि शरीर के ऊपरी चक्र व्यक्ति के उच्च मानसिक एवं आध्यात्मिक विचारों से जुड़े रहते हैं। 
इन चक्रों के ऊर्जा प्रवाह में कोई अवरोध या अधिक, ऊर्जा का असंतुलन होने से तत्काल उसका मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक स्तिथि पर पड़ता है। ऐसे असंतुलन मानसिक दवाब या गहरे नकारात्मक विचारों के कारण पैदा होते हैं। प्रत्येक चक्र का अपना स्तम्भ होता है जो बाह्य वातावरण से स्पन्दनशील होते हैं।  बाह्य तरंगें  इन स्तम्भ के माध्यम से चक्र में पहुँचते हैं। 
अधिकतर ये चक्र अपनी साधारण शांत स्तिथि में रहते हैं। अन्तः स्थापित ग्रंथियाँ  शरीर के "हारमोन" संतुलन को नियंत्रित करती हैं जिनका विशेष प्रभाव व्यक्ति के मनोविज्ञान एवं भावनात्मक विचारों पर पड़ता है।  यदि किसी कारण  वश चक्र असंतुलित हो जाते हैं तो तत्काल प्रभाव अन्तः स्थापित ग्रंथियों पर पड़ता है एवं वे भी असंतुलित हो जाती हैं। अगर शरीर के नकारात्मक विचारों के कारण  अन्तः स्थापित ग्रंथियों में असंतुलन हो जाता है तो तत्काल प्रभाव चक्रों पर पड़ता है, कारण ऊर्जा का आदान-प्रदान दोनों के बीच  होता है। किसी भी प्रकार से अगर अन्तः स्थापित ग्रंथियाँ असंतुलित हो जाती हैं तो उनका प्रभाव अगल-बगल के अंगों एवं नाड़ी  संस्थान पर भी पड़ता है। 
शरीर के सभी  चक्र महत्वपूर्ण हैं। यह विचार गलत है कि निचले चक्र पृथ्वी तत्व से जुड़ें हैं तो वह  कम  महत्वपूर्ण हैं और ऊपरी चक्र आध्यात्मिक जगत से जुड़े हैं तो अधिक महत्वपूर्ण हैं। यदि किसी भी एक चक्र में असंतुलन पैदा हो जाता है तो इसका प्रभाव सभी चक्रों पर पड़ता है। शरीर के सात चक्रों में तीन चक्र ऊपर की अवस्थित हैं यथा सहस्त्रार चक्र, आज्ञा चक्र एवं विशुद्ध चक्र और तीन चक्र नीचे की अवस्थित हैं यथा मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र एवं मणिपुर चक्र।  ऊपर के तीन एवं नीचे  के तीनों  चक्रों के मध्य हृदय चक्र अवस्थित होता है दोनों ही शक्तियाँ  ध्रुव तत्व आकाश एवं पृथ्वी तत्व  हृदय  चक्र में ही आकर मिलते हैं। हृदय चक्र प्यार का धारक है।  यह प्यार चक्र दोनों ही तत्वों का संगम स्थल है।  दोनों ही तत्व हृदय में पहुँच कर एकाकार हो जाते हैं। 

चक्र एवं उनके कार्य 

1. मूलाधार चक्र - यह चक्र पुरुषों की रीढ़ की सबसे नीचे की तिकोनी हड्डी एवं महिलाओं के अंडाशय के मध्य क्षेत्र में अवस्थित होता है। यह चक्र शरीर में भौतिक शक्ति का स्थान है जो जीवन के लिए प्रेरित करता है। यह कुंडलिनी जागरण एवं प्रचुरता का परिचायक है। सम्बंधित अंग- सुपरारीनल ग्रंथि, मूत्र पिंड (किडनी), मूत्र थैली एवं सुषुम्ना।  तत्व- पृथ्वी, रंग- लाल, कार्य - भौतिक शक्ति, सृजन शक्ति, प्रतिकूल प्रभाव - शारीरिक जड़ता, उदासी, भारीपन, अस्थि रोग। 
2. स्वाधिष्ठान चक्र - नाभि से करीब तीन इंच नीचे  अवस्थित होता है।  यह चक्र काम शक्ति का केंद्र एवं अहम का परिचायक है।  सम्बंधित अंग- ग्रोनड ग्रंथि, प्रजनन अंग एवं दोनों पाव।  किसी व्यक्ति के प्रति मनोभाव सीधे इस चक्र के द्वारा प्राप्त होते हैं। विचार भावनात्मक।  तत्व- जल, रंग- नारंगी, प्रतिकूल प्रभाव- कफ खांसी,  श्वास, मूत्र रोग। 
3. मणिपुर चक्र - नाभि के करीब तीन अंगुल ऊपर अवस्थित होता है। यह शरीर का वह वास्तविक केंद्र है जहाँ से भौतिक ऊर्जा का वितरण होता है। यह चक्र बुद्धिमानी एवं शक्ति का प्रतीक है। अगर हम किसी बात से बहुत डर जाते हैं तो इस अंग में स्वतः ही कड़ापन आ जाता है।  सम्बंधित अंग - अमाशय, लीवर , गॉलब्लाडर पाचन संस्थान।  तत्व- अग्नि।  रंग- पीला। कार्य- शक्ति एवं बुद्धि।  प्रतिकूल प्रभाव- रक्त सम्बंधित रोग, अतिसार, संग्रहणी। 

4. हृदय चक्र - दिल के करीब सीने  के बीच में यह चक्र अवस्थित होता है। यह चक्र निश्छल, प्रेम, अपनापन, भाईचारा,आध्यात्मिक विकास, भक्ति, साधना, एवं ईश्वर प्रेम का प्रतीक  है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इस चक्र को जाग्रत करने पर विशेष  बल दिया है।  कारण जब तक यह चक्र जाग्रत होकर निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं करेगा तब तक आध्यात्मिक विकास पूर्ण नहीं होगा। बिना किसी शर्त के सभी को प्यार करना। यह इस चक्र की उच्च स्थिति है। सम्बंधित अंग- थाईमस, हृदय, फेफड़े, रक्त प्रवाह, लीवर।  तत्व- हवा। रंग- हरा  प्रतिकूल प्रभाव- शारीरिक पीड़ा, निराशा, तंगदिल, प्रेम का आभाव। 

5. विशुद्ध चक्र - यह संचारक का चक्र है। अपनी अभिव्यक्ति एवं क्रियाशीलता, अपने मनोभाव को दूसरों तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण विभाग है।  जो सच है, सत्य है उसकी अभिव्यक्ति करते रहने से इस चक्र का सतत विकास होता है।  वाणी में ओज एवं प्रभाव होता है। इस चक्र द्वारा अंतरात्मा की आवाज एवं उच्च स्तर से आने वाले सन्देश गृहीत होते हैं।  सम्बंधित अंग- थाइरायड ग्रंथि, गला, फेफड़े, रक्त प्रवाह, हृदय, लीवर।  प्रतिकूल प्रभाव - पित्त, कफ एवं बाल सम्बन्धी रोग। रंग- आसमानी (हल्का नीला ) 

6. आज्ञा चक्र - यह चक्र ललाट पर दोनों भौंहो के मध्य जरा सा ऊपर अवस्थित होता है। यह चक्र बाह्य ज्ञान का केंद्र है, व्यक्ति के अंतर्ज्ञान (इन्ट्यूशन ) का विकास इसी चक्र में होता है।  इस चक्र के विकसित, जाग्रत होने से भविष्य में होने वाली घटनाओं की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त होती है एवं आध्यात्मिक विकास के लिए इस चक्र का बहुत महत्व है।  सम्बंधित अंग- सुषुम्ना नाड़ी, निचला दिमाग, बायीं आँख, नाक, कान, नाड़ी संस्थान इत्यादि।  रंग - नीला।  कार्य- अंतप्रेरणा एवं इच्छाओं का चक्र। 

7. सहस्त्रार चक्र - सिर के ऊपर मध्य में यह चक्र अवस्थित होता है।  यह चक्र उच्चतम आध्यात्मिक साधना का स्थल है। उच्चतम स्तिथि में ज्ञान को प्राप्त कर समाधि  की अवस्था होती है, निर्विकार, कोई भाव नहीं, कोई विचार नहीं, शून्यता की स्थिति।  अंतर्ज्ञान एवं दिव्य दर्शन इस चक्र की उच्चतम स्थिति है। सम्बंधित अंग- ऊपरी दिमाग, दायीं आँख, पीनियल ग्रंथि।  रंग - जामुनी। कार्य- आध्यात्मिक प्रगति। 
सभी समस्याओं के समाधान हेतु संपर्क करें 

गीता राधेमोहन 
प्रेमाभक्ति योग संस्थान (रजि.)
call/WhatsApp No. 08383804815
कॉल करने का समय - सुबह 11 बजे से दोपहर 2 बजे तक 






Saturday 8 April 2017

श्री दुर्गा कवच

!! ॐ नमो श्री हरि !!

श्री दुर्गा कवच ! एक अचूक उपाय - 

यदि कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार के रोग से पीड़ित है और सभी प्रकार का उपचार करा चुका है। लेकिन रोग में कोई आराम नहीं है। तो उस व्यक्ति को श्री दुर्गा कवच का पाठ करना चाहिए। यह पाठ चालीस दिनों तक प्रातः सूर्योदय के साथ ही करना चाहिए। श्री दुर्गा कवच एक अचूक उपाय है। किसी भी प्रकार के रोग से मुक्ति पाने हेतु। श्री दुर्गा कवच का पाठ करने वाले व्यक्ति पर मारण-मोहन-उच्चाटन आदि तांत्रिक क्रियाएं भी कोई असर नहीं कर पाती हैं। श्री दुर्गा कवच में सिर से लेकर पैर के तलवे तक को मन्त्रों द्वारा सुरक्षित किया जाता है। हमारे शरीर के बाहरी एवं आंतरिक समस्त अंगों की रक्षा श्री दुर्गा कवच के मन्त्रों से की जाती है।  यदि कोई व्यक्ति स्वयं पाठ करने में समर्थ नहीं है तो परिवार का कोई भी सदस्य उसके लिए पाठ कर सकता है। यदि यह भी संभव नहीं है तो आप किसी योग्य व्यक्ति से यह पाठ करवा सकते हैं। स्त्री या पुरुष कोई भी श्री दुर्गा कवच का पाठ कर सकता है।                                                            दुर्गा कवच का पाठ करवाने के लिए आप प्रेमाभक्ति योग संस्थान से भी संपर्क कर सकते हैं। यह सब निःशुल्क है। परन्तु पूजा सामग्री का व्यय आप स्वयं वहन करना होगा। प्रेमाभक्ति योग संस्थान से संपर्क करने हेतु नीचे दिए हुए नंबर पर कॉल करें या सन्देश भेजें। समय सुबह 11 बजे से दोपहर 2 बजे तक। 

गीता राधेमोहन 
प्रेमाभक्ति योग संस्थान 
Call / WhatsApp No. 08383804815 

Friday 7 April 2017

प्रेम प्रेम में अंतर

ॐ नमो श्री हरि !
प्रेम प्रेम में अंतर का  है, हमको दो बतलाई।  
जगत प्रेम में का कुछ खोयौ, हरि प्रेम का पाई।।  
प्रेम प्रेम में अंतर बूझो, श्याम रहे समझाई। 
जगत प्रेम है दुःख की नदिया, दिन-रैना नीर बहाई।।  
हरि प्रेम है सुख को सागर, डूबे पार हो जाई।  
जगत प्रेम में का कुछ खोयौ, हरि प्रेम का पाई।।  
हरि प्रेमी सबको भलो, चाहत है दिन- रैन। 
कभी भूलकर भी मुख से, ना बोले कड़वे बैन।।   
जगत प्रेमी स्व-सुख की खातिर, दूजे  देय  उखाड़।  
अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु, हरे बाग दे उजाड़।।   
जगत प्रेमी दिन और राती , रहे पाप  बटोर।  
अंत समय में श्री हरि से,  पावें दण्ड कठोर।।   
हरि प्रेमी हरि नाम का, रहे खजाना जोड़।  
मुक्ति की कोई चाह  नहीं, मची हरि प्रेम की  होड़।।    
जगत प्रेम, इस देह के संग ही हो जाए नष्ट।  
हरि प्रेम से, हरि प्यारों के छूट जाएं सब कष्ट।।   
जगत प्रेमी को यह जगत, पल देय  भुलाय।  
हरि प्रेमी को यह जगत, रखे हृदय  बसाय।।   
प्रेम- प्रेम में ये ही अंतर, मोहे श्याम दियो समझाई।  
लगी लगन हरि प्रेम की, अब बुझे ना किसी की बुझाई।।  
हरि प्रेम में होकर पागल, रहूँ मगन दिन-रैन  मैं।  
हरि प्रेम का पीकर प्याला, पाऊँ सब सुख चैन मैं।।   
बोलो हरि हरि बोलो हरि हरि श्री हरि बोलो हरि हरि।  
बोलो हरि हरि बोलो हरि हरि श्री हरि बोलो हरि हरि।।   
गीता राधेमोहन 
प्रेमाभक्ति योग संस्थान