ॐ नमो श्री हरि !
प्रेम प्रेम में अंतर का है, हमको दो बतलाई।
जगत प्रेम में का कुछ खोयौ, हरि प्रेम का पाई।।
प्रेम प्रेम में अंतर बूझो, श्याम रहे समझाई।
जगत प्रेम है दुःख की नदिया, दिन-रैना नीर बहाई।।
हरि प्रेम है सुख को सागर, डूबे पार हो जाई।
जगत प्रेम में का कुछ खोयौ, हरि प्रेम का पाई।।
हरि प्रेमी सबको भलो, चाहत है दिन- रैन।
कभी भूलकर भी मुख से, ना बोले कड़वे बैन।।
जगत प्रेमी स्व-सुख की खातिर, दूजे देय उखाड़।
अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु, हरे बाग दे उजाड़।।
जगत प्रेमी दिन और राती , रहे पाप बटोर।
अंत समय में श्री हरि से, पावें दण्ड कठोर।।
हरि प्रेमी हरि नाम का, रहे खजाना जोड़।
मुक्ति की कोई चाह नहीं, मची हरि प्रेम की होड़।।
जगत प्रेम, इस देह के संग ही हो जाए नष्ट।
हरि प्रेम से, हरि प्यारों के छूट जाएं सब कष्ट।।
जगत प्रेमी को यह जगत, पल देय भुलाय।
हरि प्रेमी को यह जगत, रखे हृदय बसाय।।
प्रेम- प्रेम में ये ही अंतर, मोहे श्याम दियो समझाई।
लगी लगन हरि प्रेम की, अब बुझे ना किसी की बुझाई।।
हरि प्रेम में होकर पागल, रहूँ मगन दिन-रैन मैं।
हरि प्रेम का पीकर प्याला, पाऊँ सब सुख चैन मैं।।
बोलो हरि हरि बोलो हरि हरि श्री हरि बोलो हरि हरि।
बोलो हरि हरि बोलो हरि हरि श्री हरि बोलो हरि हरि।।
गीता राधेमोहन
प्रेमाभक्ति योग संस्थान
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